भक्ति का तमाशा और अश्लीलता
भक्ति का तमाशा और अश्लीलता : जब परंपरा मंच पर नीलाम होने लगे
भारतीय संस्कृति में भक्ति केवल पूजा-पाठ या मंत्रोच्चार का नाम नहीं रही है। भक्ति एक जीवन-दृष्टि है—जिसमें कला, नृत्य, संगीत, लोकपरंपराएँ और उत्सव सब सम्मिलित रहे हैं। भारत की हर लोककला किसी न किसी देवी-देवता, प्रकृति या सामाजिक सद्भाव से जुड़ी रही है। लेकिन आज वही लोककला, वही भक्ति और वही उत्सव जब मंच पर आते हैं, तो प्रश्न उठता है—क्या यह भक्ति है, या भक्ति के नाम पर तमाशा?
तमिलनाडु का पारंपरिक लोकनृत्य करकट्टम इसका ज्वलंत उदाहरण है। कभी यह नृत्य वर्षा, जल और ग्राम-देवी मरियम्मन की उपासना का माध्यम था। सिर पर जल से भरा कलश लेकर संतुलन और साधना के साथ किया जाने वाला यह नृत्य श्रद्धा का प्रतीक था। लेकिन समय के साथ-साथ इस नृत्य की आत्मा खोती चली गई और देह उसका केंद्र बन गई।
आज कई स्थानों पर करकट्टम जैसे नृत्य भक्ति से अधिक भीड़ खींचने का साधन बन चुके हैं। मंच, प्रकाश, संगीत और वेशभूषा—सब कुछ इस तरह रचा जाता है कि दर्शक आकर्षित हों, भले ही वह आकर्षण मर्यादा की सीमा लाँघ जाए। नृत्य के भावों में देवी नहीं, बल्कि देह की उत्तेजना प्रमुख हो जाती है। यही वह बिंदु है जहाँ भक्ति तमाशे में बदल जाती है।
अश्लीलता कहाँ से आई?
अश्लीलता अचानक नहीं आती, वह धीरे-धीरे स्वीकृति पाती है। जब आयोजक भीड़ की संख्या को सफलता मानने लगते हैं, जब कलाकारों की आजीविका “दिखावे” पर निर्भर हो जाती है, और जब समाज चुपचाप सब देखता रहता है—तब कला का पतन तय हो जाता है।
यह कहना आसान है कि “कलाकार ऐसा क्यों करते हैं?” लेकिन सच्चाई यह है कि कलाकार अकेले दोषी नहीं हैं। दोषी है वह व्यवस्था जो कला को बाज़ार बना देती है, और वह समाज जो ताली बजाकर उस बाज़ार को चलाता है।
परिवार और बच्चे : सबसे चिंताजनक पक्ष
सबसे पीड़ादायक दृश्य तब होता है जब ऐसे आयोजनों में परिवार और बच्चे भी मौजूद होते हैं। जो नृत्य मूलतः देवी-उपासना का प्रतीक था, वही आज बच्चों की आँखों के सामने देह-प्रदर्शन का साधन बन जाता है। यह केवल “देखने” का प्रश्न नहीं है, यह संस्कारों के बोए जाने का क्षण है।
बच्चा वही सीखता है जो वह सामान्य रूप में देखता है। जब अश्लीलता उत्सव बन जाए, तो वह गलत नहीं लगती। यही सबसे खतरनाक स्थिति है—जब विवेक सुन्न हो जाए।
शास्त्र क्या कहते हैं?
भारतीय दर्शन में कला को साधना माना गया है। नाट्यशास्त्र कहता है कि नृत्य और नाटक का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि चित्त की शुद्धि है।
मनुस्मृति का प्रसिद्ध वाक्य—
> “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः”
जहाँ नारी पूज्य है, वहीं देवता वास करते हैं।
लेकिन जब नारी मंच पर पूज्य नहीं, बल्कि उपभोग की वस्तु बना दी जाती है, तब देवता नहीं, केवल भीड़ बचती है।
भक्ति बनाम व्यवसाय
भक्ति और व्यवसाय में अंतर है। भक्ति में भाव प्रधान होता है, व्यवसाय में लाभ। जब भक्ति को व्यवसाय की कसौटी पर कसा जाता है, तो शुद्धता सबसे पहले मरती है।
आज “Live Show”, “Viral Video”, “Views” और “Trending” जैसे शब्द लोकसंस्कृति की आत्मा को खा रहे हैं। जो जितना भड़काऊ, वही उतना लोकप्रिय—यह सूत्र कला के लिए घातक है।
समाधान क्या है?
आलोचना आसान है, समाधान कठिन—लेकिन असंभव नहीं।
1. लोककला का शुद्ध रूप संरक्षित किया जाए
सरकार, सांस्कृतिक संस्थाएँ और समाज मिलकर लोकनृत्य के मूल स्वरूप को बढ़ावा दें।
2. आयोजकों की जिम्मेदारी तय हो
भक्ति या ग्राम-उत्सव के नाम पर अश्लील प्रस्तुति की अनुमति न दी जाए।
3. परिवारों की भूमिका
सबसे बड़ा परिवर्तन तब आएगा जब परिवार यह कहने का साहस करें—“यह हम नहीं देखेंगे।”
4. कलाकारों को विकल्प
कलाकारों को सम्मानजनक मंच, उचित पारिश्रमिक और मर्यादित प्रस्तुति के अवसर दिए जाएँ।
अंतिम विचार
यह लड़ाई न नृत्य के खिलाफ है, न कलाकार के खिलाफ। यह लड़ाई है भक्ति की आत्मा को बचाने की। जब भक्ति तमाशा बनती है, तो केवल संस्कृति नहीं गिरती—मनुष्य भी गिरता है।
अगर आज हमने ताली बजाकर चुप्पी साध ली, तो कल हमारी परंपराएँ केवल वीडियो क्लिप बनकर रह जाएँगी—बिना आत्मा के, बिना श्रद्धा के।
भक्ति प्रदर्शन नहीं है।
भक्ति साधना है।
और साधना कभी नीलाम नहीं होती।
आर्यमौलिक
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