3- भगवत गीता जीवन अमृत


सफलता के बाद डर क्यों लगता है?

(योगस्थः कुरु कर्माणि — गीता 2.48 के आलोक में विस्तृत विवेचना)

सफलता—जिसे पाने के लिए मनुष्य वर्षों परिश्रम करता है—अक्सर आनंद, आत्मविश्वास और संतोष का कारण मानी जाती है। पर एक विचित्र सत्य यह है कि जैसे ही सफलता मिलती है, उसके साथ-साथ एक अदृश्य डर भी जन्म लेने लगता है। यह डर कई रूपों में सामने आता है—कहीं यह डर कि कहीं यह सफलता छिन न जाए, कहीं यह भय कि अब अपेक्षाएँ बहुत बढ़ गई हैं, तो कहीं यह चिंता कि दोबारा वैसी सफलता मिल भी पाएगी या नहीं। प्रश्न यह नहीं कि डर आता क्यों है, बल्कि यह है कि सफलता के बाद ही डर अधिक क्यों महसूस होता है?

गीता का सूत्र कहता है—“योगस्थः कुरु कर्माणि”—अर्थात योग में स्थित होकर कर्म करो। यह श्लोक केवल कर्म करने की बात नहीं करता, बल्कि उस मानसिक अवस्था की ओर संकेत करता है जिसमें मनुष्य आसक्ति और भय से मुक्त होकर कार्य करता है। यही सूत्र सफलता के बाद आने वाले डर की जड़ को समझने की कुंजी देता है।
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1. सफलता और आसक्ति का जन्म

सफलता मिलते ही मनुष्य उस परिणाम से जुड़ जाता है। वह सफलता उसकी पहचान बन जाती है—मैं सफल हूँ, मैं विजेता हूँ, लोग मुझे इसी रूप में जानते हैं। यही पहचान धीरे-धीरे आसक्ति में बदल जाती है।
जब कोई वस्तु, पद, सम्मान या उपलब्धि हमारी पहचान बन जाती है, तब उसे खोने का भय स्वाभाविक है। वास्तव में डर सफलता से नहीं, सफलता से जुड़ी आसक्ति से पैदा होता है।
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2. अपेक्षाओं का बोझ

सफल व्यक्ति से समाज, परिवार और स्वयं उसकी अपेक्षाएँ बढ़ा देते हैं।

अब तो आपको हर बार जीतना ही होगा

अब गलती की कोई गुंजाइश नहीं

यह अपेक्षाएँ व्यक्ति को भीतर से बाँध देती हैं। वह स्वतंत्र होकर कर्म नहीं कर पाता, क्योंकि हर कदम पर यह डर बना रहता है कि कहीं अपेक्षाएँ टूट न जाएँ। यही कारण है कि कई बार अत्यधिक सफल व्यक्ति भीतर से अत्यधिक दबाव में रहते हैं।
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3. गिरने का भय: ऊँचाई का सत्य

ऊँचाई पर पहुँचना जितना कठिन है, उससे अधिक कठिन होता है वहाँ टिके रहना।
जो व्यक्ति शिखर पर पहुँच जाता है, उसे नीचे गिरने का डर सताने लगता है। यह डर उस व्यक्ति को नहीं होता जो अभी रास्ते में है, क्योंकि उसके पास खोने को कुछ नहीं होता।
यहाँ डर सफलता का नहीं, खोने की संभावना का होता है।
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4. अहंकार और असुरक्षा

सफलता कभी-कभी अहंकार को जन्म देती है—मैंने यह किया, मेरी वजह से यह संभव हुआ।
अहंकार जितना बड़ा होता है, असुरक्षा उतनी ही गहरी होती है। क्योंकि अहंकार भीतर से जानता है कि वह स्थायी नहीं है।
जहाँ विनम्रता होती है, वहाँ डर कम होता है। जहाँ अहंकार होता है, वहाँ भय छिपा रहता है।
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5. तुलना का जाल

सफल होने के बाद व्यक्ति स्वयं की तुलना दूसरों से करने लगता है—

क्या मैं उनसे बेहतर हूँ?

कहीं कोई मुझसे आगे न निकल जाए

यह तुलना डर को जन्म देती है। व्यक्ति अपना मार्ग छोड़कर दूसरों की गति देखने लगता है। इससे मन स्थिर नहीं रह पाता और भय बढ़ता जाता है।
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6. योगस्थ भाव: डर का समाधान

गीता का संदेश यहाँ अत्यंत व्यावहारिक है—योगस्थ होकर कर्म करो।
योगस्थ होने का अर्थ है—

कर्म करना, पर फल में उलझना नहीं

सफलता आए तो उसे स्वीकार करना, पर उससे बँधना नहीं

असफलता आए तो टूटना नहीं
जब कर्म ही लक्ष्य बन जाता है और फल को ईश्वर या समय पर छोड़ दिया जाता है, तब डर स्वतः समाप्त होने लगता है।
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7. कर्म-प्रधान जीवन की शक्ति

जो व्यक्ति सफलता के बाद भी सीखना नहीं छोड़ता, मेहनत नहीं छोड़ता और चलना नहीं छोड़ता—वही आगे बढ़ता है।
डर उसी को लगता है जो रुक जाता है, जो अपनी सफलता को अंतिम पड़ाव मान लेता है।
चलते रहने वाला व्यक्ति जानता है कि जीवन प्रवाह है—आज सफलता है, कल नया संघर्ष होगा, और परसों नई उपलब्धि।
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8. सफलता को साधन बनाइए, साध्य नहीं

यदि सफलता को जीवन का अंतिम लक्ष्य बना लिया जाए, तो डर निश्चित है।
पर यदि सफलता को अगले कर्म की प्रेरणा बना लिया जाए, तो वह भय को जन्म नहीं देती, बल्कि साहस को बढ़ाती है।
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निष्कर्ष

सफलता के बाद डर लगना मनुष्य की स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया है, पर यह अनिवार्य नहीं है।
डर तब पैदा होता है जब—

हम सफलता से आसक्त हो जाते हैं

उसे अपनी पहचान बना लेते हैं

भविष्य की चिंता में वर्तमान का आनंद खो देते हैं


गीता का मार्ग स्पष्ट है—
कर्म करो, पर आसक्ति छोड़ो।
सफलता आए तो विनम्र रहो, जाए तो स्थिर रहो।

जो व्यक्ति योगस्थ होकर कर्म करता है, उसके लिए सफलता भय नहीं बनती, बल्कि सेवा, विकास और आत्मविस्तार का साधन बन जाती है।

क्रमशः 

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