परंपरा से पतन तक की यात्रा
तमिल लोकनृत्य करकट्टम में बढ़ती अश्लीलता : परंपरा से पतन तक की यात्रा
तमिलनाडु की भूमि प्राचीन संस्कृति, भक्ति और लोकपरंपराओं की समृद्ध धरोहर रही है। इसी सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण अंग है करकट्टम, एक ऐसा लोकनृत्य जो कभी देवी-उपासना, वर्षा और जल-तत्व से जुड़ा हुआ था। करकट्टम का मूल स्वरूप न केवल कलात्मक था, बल्कि आध्यात्मिक भी। यह नृत्य मनुष्य और प्रकृति के संतुलन का प्रतीक था। लेकिन आज जब हम करकट्टम को आधुनिक मंचों और सोशल मीडिया पर देखते हैं, तो एक पीड़ादायक प्रश्न उठता है—क्या यह वही करकट्टम है, या केवल उसका विकृत रूप?
करकट्टम की मूल आत्मा
करकट्टम शब्द “करक” से बना है, जिसका अर्थ है जल से भरा मिट्टी का घड़ा। नर्तक या नर्तकी इस घड़े को सिर पर रखकर संतुलन साधते हुए नृत्य करते हैं। यह नृत्य विशेष रूप से देवी मरियम्मन के उत्सवों में किया जाता था, जिन्हें वर्षा और रोग-निवारण की देवी माना जाता है। इस नृत्य में संयम, संतुलन, लय और श्रद्धा का विशेष महत्व था। वस्त्र, भाव और मुद्राएँ मर्यादित होती थीं। उद्देश्य मनोरंजन नहीं, बल्कि देवी की आराधना और सामूहिक उल्लास था।
समय के साथ आया परिवर्तन
समस्या तब शुरू हुई जब लोकनृत्य को भक्ति से अधिक व्यवसाय के रूप में देखा जाने लगा। जैसे-जैसे ग्रामीण उत्सवों में मंच, ध्वनि प्रणाली और बाहरी दर्शक बढ़े, वैसे-वैसे प्रस्तुति का स्वरूप बदलता गया। आयोजकों ने यह अनुभव किया कि जितना प्रदर्शन उत्तेजक होगा, उतनी ही भीड़ आएगी। इसी सोच ने करकट्टम को धीरे-धीरे उसकी मूल मर्यादा से दूर कर दिया।
आज कई स्थानों पर करकट्टम के नाम पर ऐसे नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं जिनका देवी-उपासना से कोई संबंध नहीं रह गया है। अत्यधिक भड़कीले वस्त्र, अश्लील अंग-भंगिमाएँ, द्विअर्थी गीत और उत्तेजक संगीत—ये सब उस कला का हिस्सा बन गए हैं, जो कभी साधना थी।
अश्लीलता के कारण
करकट्टम में बढ़ती अश्लीलता के पीछे कई कारण हैं:
1. आर्थिक दबाव – कलाकारों के सामने आजीविका का संकट है। उन्हें वही प्रस्तुत करना पड़ता है, जिसकी माँग आयोजक और दर्शक करते हैं।
2. आयोजकों का लालच – भक्ति या संस्कृति नहीं, बल्कि टिकट, चंदा और सोशल मीडिया व्यूज़ प्राथमिक बन गए हैं।
3. दर्शकों की मानसिकता – जब समाज मर्यादा के बजाय उत्तेजना को प्रोत्साहित करता है, तो कला उसी दिशा में जाती है।
4. सोशल मीडिया का प्रभाव – वायरल होने की होड़ ने लोकनृत्य को “कंटेंट” में बदल दिया है।
5. संरक्षण का अभाव – शुद्ध लोककला को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं की कमी।
परिवार और समाज पर प्रभाव
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि ऐसे आयोजन परिवार और बच्चों की उपस्थिति में होते हैं। जो नृत्य कभी संस्कार और सामूहिकता का प्रतीक था, वही आज बच्चों के मन में विकृत छवियाँ अंकित कर रहा है। जब अश्लीलता को उत्सव का हिस्सा बना दिया जाता है, तो वह धीरे-धीरे सामान्य लगने लगती है। यही सामाजिक पतन की शुरुआत होती है।
शास्त्रीय और नैतिक दृष्टि
भारतीय कला-दर्शन में नृत्य को चित्त-शुद्धि का साधन माना गया है। नाट्यशास्त्र स्पष्ट करता है कि नृत्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि लोक-कल्याण है। शास्त्रों में नारी को शक्ति और पूज्यता का प्रतीक माना गया है। लेकिन जब करकट्टम में नारी केवल देह-प्रदर्शन तक सीमित कर दी जाती है, तो यह केवल कला का नहीं, बल्कि संस्कृति का अपमान है।
क्या यह करकट्टम की गलती है?
नहीं। करकट्टम स्वयं में न अश्लील है, न अनैतिक। दोष है उसके विकृत आधुनिक रूप का। जिस प्रकार भजन को फूहड़ बनाया जा सकता है और कथा को तमाशा, उसी प्रकार करकट्टम को भी बाज़ार ने बिगाड़ दिया है। यह किसी एक नृत्य या एक क्षेत्र की समस्या नहीं, बल्कि पूरे देश में लोकसंस्कृति के साथ हो रहे व्यवहार का प्रतीक है।
समाधान की दिशा
यदि वास्तव में करकट्टम और अन्य लोकनृत्यों को बचाना है, तो कुछ ठोस कदम आवश्यक हैं:
पारंपरिक करकट्टम को प्रोत्साहन
आयोजनों पर सामाजिक और प्रशासनिक नियंत्रण
कलाकारों को सम्मानजनक विकल्प और प्रशिक्षण
परिवारों में जागरूकता
लोककला को शिक्षा का हिस्सा बनाना
निष्कर्ष
करकट्टम केवल एक नृत्य नहीं, तमिल संस्कृति की आत्मा का प्रतीक है। जब इस आत्मा को अश्लीलता और लालच के हाथों सौंप दिया जाता है, तो केवल एक कला नहीं मरती—पूरी पीढ़ी का संस्कार कमजोर होता है। समय आ गया है कि हम भक्ति और मनोरंजन, कला और तमाशे के बीच अंतर समझें।
यदि करकट्टम को उसकी मूल गरिमा के साथ नहीं बचाया गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ उसे केवल एक “वायरल वीडियो” के रूप में जानेंगी—एक ऐसी परंपरा के रूप में, जिसकी आत्मा कहीं खो गई।
लोकनृत्य शरीर की गति नहीं, संस्कृति की गति है।
और जब संस्कृति लड़खड़ाती है, तो समाज गिरता है।
संस्कृति
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