जब किसी के सपनों को कुचल कर कोई अपने शौक पूरे करता है
जब किसी के सपनों को कुचल कर कोई अपने शौक पूरे करता है
— भगवद्गीता के आलोक में एक गहन विवेचना
कुछ एहसास ऐसे होते हैं, जिन्हें न देखा जा सकता है, न शब्दों में पूरी तरह बाँधा जा सकता है। बस महसूस किया जा सकता है। और जब वे एहसास भीतर उतरते हैं, तो रूह काँप जाती है। यह केवल आज की बात नहीं है, न ही यह समस्या किसी एक युग तक सीमित है। यह पीड़ा सदियों से मनुष्य के साथ चली आ रही है — विश्वास टूटने की पीड़ा, मेहनत की कमाई लुटने की पीड़ा, और सपनों के कुचले जाने की पीड़ा।
एक सामान्य मनुष्य अपने पसीने की एक-एक बूँद से पैसा इकट्ठा करता है। वह अपनी आवश्यकताओं को टालता है, अपने शौक दबाता है, अपने परिवार की इच्छाओं को पीछे रख देता है। यह सब इसलिए, क्योंकि उसे किसी काम के लिए किसी व्यक्ति पर भरोसा होता है। वह भरोसा केवल धन का नहीं होता, वह भरोसा भविष्य का होता है, आशाओं का होता है, अरमानों का होता है।
लेकिन जब वही व्यक्ति, जिसे आपने अपनी मेहनत सौंपी होती है, उस मेहनत की कीमत नहीं समझता — तब मनुष्य भीतर से टूट जाता है।
वह व्यक्ति झूठ बोलता है।
“आज नहीं, कल होगा।”
“कल साहब नहीं आए थे।”
“आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है।”
और फिर एक दिन ऐसा आता है, जब वह फोन उठाना भी बंद कर देता है।
यह केवल आर्थिक नुकसान नहीं होता, यह आत्मिक आघात होता है।
क्या ऐसे निर्दयी व्यक्ति को ईश्वर दंड नहीं देता?
यह प्रश्न हर पीड़ित मन में उठता है। जब कोई व्यक्ति किसी के सपनों को रौंदकर, उसके पैसों से अपने शौक पूरे करता है, ऐश करता है, मौज-मस्ती करता है — तब भीतर से एक पुकार उठती है: “क्या भगवान सब देख कर भी चुप रहते हैं?”
भगवद्गीता इस प्रश्न का उत्तर बहुत स्पष्ट, लेकिन बहुत गहरे स्तर पर देती है।
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कर्म और फल का अटल नियम — गीता का मूल सिद्धांत
भगवद्गीता का सबसे मूल और अटल सिद्धांत है — कर्म सिद्धांत।
श्रीकृष्ण कहते हैं—
> अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
(गीता 4.17 का भावार्थ)
अर्थात्
मनुष्य द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म — चाहे शुभ हो या अशुभ — उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है।
यह ईश्वर की सजा नहीं होती, यह प्रकृति का नियम होता है।
जो व्यक्ति छल करता है, धोखा देता है, झूठ के सहारे जीता है — वह चाहे बाहर से कितना भी सुखी दिखे, भीतर से वह पहले ही दंडित हो चुका होता है।
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धोखा देने वाला क्यों नहीं समझ पाता दूसरे की पीड़ा?
गीता बताती है कि ऐसा व्यक्ति तमोगुण और रजोगुण के प्रभाव में होता है।
> रजोगुणः लोभप्रवृत्तिः
— रजोगुण मनुष्य को लोभ, भोग और स्वार्थ में डुबो देता है।
ऐसा व्यक्ति केवल अपने वर्तमान सुख को देखता है।
उसे न सामने वाले की मेहनत दिखती है,
न उसकी रातों की चिंता,
न उसके परिवार की उम्मीदें।
वह व्यक्ति विकेंड मनाता है, झूठ बोलता है, टालता है — क्योंकि उसका विवेक सोया हुआ होता है।
गीता कहती है—
> नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा
जब मोह नष्ट होता है, तभी स्मृति (विवेक) लौटती है।
लेकिन धोखा देने वाला व्यक्ति अक्सर इस स्थिति तक पहुँच ही नहीं पाता।
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ईश्वर तुरंत सजा क्यों नहीं देता?
यह बहुत बड़ा प्रश्न है।
गीता के अनुसार, ईश्वर न्यायाधीश नहीं हैं जो तुरंत हथौड़ा मार दें।
ईश्वर साक्षी हैं।
> उपद्रष्टा अनुमन्ता च
— ईश्वर देखता भी है और अनुमति भी देता है।
क्यों?
क्योंकि ईश्वर मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा देता है।
वह मनुष्य को उसके कर्म पूरे करने देता है, ताकि कर्म का फल पूर्ण रूप से पक सके।
लेकिन जब फल मिलता है, तो वह ऐसा मिलता है कि मनुष्य समझ ही नहीं पाता कि यह कब शुरू हुआ।
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दंड हमेशा दिखाई नहीं देता, पर होता अवश्य है
धोखा देने वाले व्यक्ति को सजा कई रूपों में मिलती है:
1. विश्वास का नाश
धीरे-धीरे कोई उस पर भरोसा नहीं करता।
2. मानसिक अशांति
बाहर हँसता है, भीतर डरता है —
“कहीं मेरे साथ भी ऐसा न हो जाए।”
3. संतान और परिवार का कष्ट
गीता कहती है कि अधर्म का प्रभाव केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता।
4. अंत समय का पश्चाताप
जब न पैसा काम आता है, न शौक, न झूठ।
> अंतकाले च मामेव स्मरन्
अंत समय में वही स्मरण आता है, जिसे जीवन भर जिया गया हो।
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पीड़ित व्यक्ति के लिए गीता क्या कहती है?
गीता केवल दोषी को नहीं देखती, वह पीड़ित को भी मार्ग देती है।
> कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
तुम्हारा अधिकार कर्म पर है, फल पर नहीं।
इसका अर्थ यह नहीं कि अन्याय सहते रहो।
इसका अर्थ है — क्रोध, बदले और आत्मविनाश में मत जियो।
गीता पीड़ित को यह सिखाती है:
अपना विवेक बचाओ
अपनी आत्मा को कड़वाहट से मत भरने दो
अन्याय को ईश्वर और कर्म पर छोड़ दो
क्योंकि अन्याय करने वाला तुमसे नहीं, स्वयं से हारता है।
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निष्कर्ष: सत्य देर से सही, पर विजयी होता है
जो व्यक्ति किसी के अरमानों को कुचलकर अपने शौक पूरे करता है, वह वास्तव में गरीब होता है —
धन से नहीं, धर्म से।
भगवद्गीता का आश्वासन अटल है—
> न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।
— जो सत्य और धर्म के मार्ग पर चलता है, उसका कभी विनाश नहीं होता।
और जो अधर्म करता है,
उसका पतन भले देर से हो,
पर अवश्य होता है।
इसलिए जब रूह काँपे, जब विश्वास टूटे, तब यह समझिए —
आपका दर्द व्यर्थ नहीं जाएगा।
ईश्वर चुप नहीं है।
वह समय लेता है।
और समय — सबसे कठोर न्यायाधीश है।
आर्यमौलिक (9202599416)
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