हिन्दू भीड़ नहीं, भविष्य चाहिए


☀️ -:भीड़ नहीं, भविष्य चाहिए:- 🚩

हिन्दू युवाओं के आत्मनिर्भर होने का असहज सच

आज का समय भावनाओं का नहीं, हिसाब का समय है।
नारे लगाने का नहीं, नक्शा बनाने का समय है।
और सबसे ज़रूरी—भीड़ बनने का नहीं, निर्णय लेने का समय है।

आज अगर कोई सच्चाई सबसे ज़्यादा चुभती है, तो वह यह कि आर्थिक आत्मनिर्भरता की दौड़ में मुस्लिम समाज, हिन्दू समाज से कई कदम आगे निकल चुका है—और यह बात न कोई अफ़वाह है, न किसी एक शहर की कहानी।

मीना बाज़ार: एक उदाहरण, एक आईना

हर छोटे–बड़े शहर में नज़र डालिए।
रमज़ान, ईद, या किसी भी अवसर पर—मीना बाज़ार जैसा कॉन्सेप्ट उभरता है।

एक छत के नीचे—

कपड़े

जूते

खाने-पीने का सामान

बच्चों के खिलौने

घरेलू उपयोग की वस्तुएँ

सब कुछ।

और बेचने वाले? 👉 मुस्लिम युवा, जो न शर्माते हैं,
👉 न काम को छोटा समझते हैं,
👉 न इंतज़ार करते हैं कि कोई नेता आए और नौकरी दे।

वे एक-दूसरे का ग्राहक भी हैं, सहयोगी भी और सुरक्षा कवच भी।

यह कोई चमत्कार नहीं है।
यह सामूहिक सोच, अनुशासन और आर्थिक प्राथमिकता का परिणाम है।

अब सवाल चुभता है…

क्या यही मॉडल हिन्दू युवाओं के लिए नहीं अपनाया जा सकता?
क्या हिन्दू युवाओं को भी—

छोटे व्यापार

सामूहिक बाज़ार

स्थानीय रोजगार

स्वयं सहायता समूह

से नहीं जोड़ा जा सकता?

उत्तर है—बिल्कुल किया जा सकता है।
फिर सवाल है—किया क्यों नहीं जा रहा?

नेताओं की भूमिका: संरक्षण या सीमांकन?

आज हिन्दू युवाओं को संगठित किया जा रहा है—
लेकिन किस उद्देश्य से?

धर्म के नाम पर रैलियाँ

नारों के नाम पर भीड़

भावनाओं के नाम पर उत्तेजना

पर सवाल यह है— 👉 क्या उन्हें व्यवसाय सिखाया जा रहा है?
👉 क्या उन्हें बाज़ार से जोड़ा जा रहा है?
👉 क्या उन्हें आर्थिक सुरक्षा की दिशा दी जा रही है?

दुर्भाग्य से जवाब अक्सर “नहीं” होता है।

नेताओं को भीड़ चाहिए,
क्योंकि भीड़ से वोट मिलता है।
लेकिन स्वावलंबी युवा सवाल करता है—
और सवाल करने वाला युवा सत्ता को असहज करता है।

दोहरे मापदंड की राजनीति

एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि
आज की राजनीति एक हाथ में हिन्दू, दूसरे हाथ में अल्पसंख्यक रखकर चल रही है।

अल्पसंख्यकों के लिए योजनाएँ

उनके व्यापार को संरक्षण

उनकी सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित करने की बातें

और दूसरी ओर—

हिन्दू समाज को भावनात्मक मुद्दों में उलझाकर

वास्तविक शिक्षा, रोजगार और व्यापार से दूर रखा जा रहा है।

यह बात हिन्दू समाज के तथाकथित प्रमुख भी जानते हैं,
लेकिन वे भी चुप हैं—
क्योंकि उन्हें भी सत्ता-संतुलन बनाए रखना है।

आत्मनिर्भरता धर्म नहीं देखती

व्यापार न हिन्दू होता है,
न मुस्लिम,
न सिख,
न ईसाई।

व्यापार देखता है—

मेहनत

अनुशासन

सामूहिक सहयोग

जोखिम उठाने का साहस

मुस्लिम समाज ने यह समझ लिया है।
हिन्दू समाज अब भी यह सोच रहा है कि
“कौन हमारे लिए करेगा?”

जबकि सच्चाई यह है— 👉 कोई नहीं करेगा।

हिन्दू युवाओं की सबसे बड़ी त्रासदी

हिन्दू युवा आज तीन मोर्चों पर हार रहा है—

1. आर्थिक मोर्चे पर
– नौकरी के भरोसे बैठा
– व्यापार से डरता हुआ

2. मानसिक मोर्चे पर
– खुद को केवल “समर्थक” समझना
– “निर्माता” नहीं

3. सामाजिक मोर्चे पर
– एक-दूसरे से जलन
– सहयोग की कमी

जबकि दूसरी ओर, अल्पसंख्यक समाज—

अपने युवाओं को हाथ पकड़कर बाज़ार में उतार रहा है

गिरने पर संभाल रहा है

सफल होने पर उदाहरण बना रहा है

धर्म की रक्षा या भविष्य की बलि?

धर्म की रक्षा जरूरी है—
लेकिन सवाल यह है— 👉 क्या गरीब, बेरोजगार, दिशाहीन युवा धर्म की रक्षा कर पाएगा?

खाली पेट से कोई संस्कृति नहीं बचती।
बिना रोजगार के कोई परंपरा जीवित नहीं रहती।

अगर हिन्दू युवा सिर्फ—

नारों में,

झंडों में,

बहसों में उलझा रहा,

तो आने वाली पीढ़ियाँ सिर्फ इतिहास पढ़ेंगी, वर्तमान नहीं जिएँगी।

अब भी समय है

यह लेख किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है।
यह हिन्दू समाज के लिए चेतावनी है।

सीखने में शर्म नहीं होती।
अपनाने में कमजोरी नहीं होती।

अगर मीना बाज़ार का मॉडल सफल है—
तो उसे हिन्दू युवाओं के लिए भी अपनाइए।

मंदिर परिसर में व्यापारिक मेले

जाति से ऊपर उठकर सहयोग

स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा

युवाओं को भीड़ नहीं, ब्रांड बनाइए

अंत में—एक तीखा प्रश्न

क्या हिन्दू समाज अपने युवाओं को— 👉 सिर्फ झंडा उठाने वाला बनाना चाहता है
या
👉 दुकान खोलने वाला, रोजगार देने वाला, आत्मनिर्भर नागरिक?

यह फैसला अब नेताओं को नहीं,
हिन्दू समाज को स्वयं करना होगा।

क्योंकि
जो समाज अपने युवाओं को बाज़ार नहीं देता,
वह उन्हें एक दिन भीड़ में खो देता है।

दीपक बुंदेला "आर्यमौलिक"

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