9. बार-बार प्रयास करने की शक्ति कहाँ से आए?


📖 उद्धरेदात्मनाऽत्मानं — (भगवद्गीता 6.5)
🪔 स्वयं को उठाओ।
🌼 जिसने स्वयं पर विश्वास खो दिया, वह अवसर के सामने भी हार जाता है।
---

मनुष्य के जीवन में संघर्ष कोई अपवाद नहीं, बल्कि नियम है। हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी-न-कभी थकता है, टूटता है, निराश होता है और मन ही मन यह प्रश्न करता है— “अब मुझमें फिर से प्रयास करने की शक्ति कहाँ बची है?” बार-बार असफलता मिलने पर, उपेक्षा, अपमान, आर्थिक संकट या पारिवारिक दबावों के बीच मनुष्य के भीतर से प्रयास की अग्नि बुझने लगती है। ऐसे समय में श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक हमें भीतर से झकझोर देता है— “उद्धरेदात्मनाऽत्मानं”— अर्थात् मनुष्य को स्वयं अपने द्वारा ही स्वयं का उद्धार करना चाहिए।

प्रयास की शक्ति बाहर नहीं, भीतर से आती है

अक्सर हम प्रयास करने की शक्ति को बाहरी परिस्थितियों से जोड़ देते हैं—संसाधन मिल जाएँ, सही व्यक्ति मिल जाए, अनुकूल समय आ जाए, तब मैं फिर से प्रयास करूँगा। लेकिन गीता का दृष्टिकोण इसके बिल्कुल विपरीत है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य का मित्र भी वही है और शत्रु भी वही। अर्थात् हमारी शक्ति किसी और के हाथ में नहीं, हमारे अपने भीतर है।

जब व्यक्ति यह मान लेता है कि “मैं परिस्थितियों का गुलाम हूँ”, उसी क्षण उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। पर जब वह कहता है— “परिस्थितियाँ कैसी भी हों, मैं प्रयास नहीं छोड़ूँगा”, तभी भीतर छुपी चेतना जागृत होती है।

आत्मविश्वास का क्षय ही वास्तविक पराजय है

🌼 जिसने स्वयं पर विश्वास खो दिया, वह अवसर के सामने भी हार जाता है।

इतिहास और वर्तमान—दोनों गवाह हैं कि अवसर सभी को मिलते हैं, पर उन्हें पहचानने और ग्रहण करने की क्षमता केवल उन्हीं में होती है जिनका आत्मविश्वास जीवित रहता है। जिसने स्वयं को तुच्छ मान लिया, जिसने अपने भीतर ही यह तय कर लिया कि “अब मुझसे कुछ नहीं हो सकता”, वह व्यक्ति सफलता के द्वार पर खड़ा होकर भी भीतर प्रवेश नहीं कर पाता।

आत्मविश्वास कोई अहंकार नहीं है। यह यह विश्वास है कि “मैं प्रयास करने योग्य हूँ”। गीता यही सिखाती है— अपने भीतर की शक्ति को पहचानो, क्योंकि आत्मा न तो थकती है, न हारती है; थकता है केवल मन।

मन—मित्र भी, शत्रु भी

गीता (6.5–6.6) में मन को मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। जब मन बार-बार असफलता के अनुभवों को दोहराता है, पुराने घाव कुरेदता है, तब वह शत्रु बन जाता है। वह कहता है— “पहले भी तो कोशिश की थी, क्या हुआ?”
लेकिन वही मन जब विवेक के अधीन आ जाता है, तब मित्र बन जाता है और कहता है— “इस बार प्रयास पहले से अधिक जागरूकता के साथ करो।”

बार-बार प्रयास करने की शक्ति वहीं से आती है जहाँ मन को प्रशिक्षित किया जाता है— स्वाध्याय, आत्मचिंतन और साधना से।

कर्मयोग: परिणाम नहीं, प्रयास पर ध्यान

भगवद्गीता का मूल संदेश कर्मयोग है। जब हम प्रयास को परिणाम से बाँध देते हैं, तब हर असफलता हमें तोड़ती है। लेकिन जब हम प्रयास को कर्तव्य मान लेते हैं, तब असफलता भी हमें सिखाती है, गिराती नहीं।

बार-बार प्रयास करने की शक्ति तब आती है जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि—

मेरा अधिकार केवल कर्म पर है

परिणाम ईश्वर के विधान का विषय है

मेरा धर्म है— प्रयास करते रहना

जो व्यक्ति प्रयास को पूजा बना लेता है, वह थकता नहीं, क्योंकि वह हर कर्म में अर्थ खोज लेता है।

पीड़ा से भागने की नहीं, उसे रूपांतरित करने की आवश्यकता

असफलता, अपमान और कष्ट— ये सब प्रयास की शक्ति के शत्रु नहीं, बल्कि गुरु हैं। समस्या तब होती है जब हम पीड़ा से भागने लगते हैं। जो व्यक्ति पीड़ा को स्वीकार कर लेता है, उसे समझ लेता है, वही व्यक्ति अगली बार पहले से अधिक सामर्थ्य के साथ खड़ा होता है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह नहीं कहा कि “तुम्हें पीड़ा नहीं होगी”, बल्कि यह कहा कि “पीड़ा के बावजूद कर्तव्य से मत भागो”। यही दृष्टि बार-बार प्रयास करने की शक्ति देती है।

स्वयं को उठाने का अर्थ

🪔 स्वयं को उठाओ।

स्वयं को उठाने का अर्थ यह नहीं कि हम स्वयं की प्रशंसा करें या वास्तविकता से आँख मूँद लें। स्वयं को उठाने का अर्थ है—

अपने भीतर की नकारात्मक वाणी को पहचानना

आत्मग्लानि को त्यागना
यह स्वीकार करना कि मैं अभी अधूरा हूँ, पर अक्षम नहीं

जो व्यक्ति स्वयं को गिरा हुआ मान लेता है, उसे कोई और उठा नहीं सकता। पर जिसने भीतर से ठान लिया कि “मैं फिर उठूँगा”, उसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती।

साधना और अनुशासन से जन्म लेती है आंतरिक शक्ति

बार-बार प्रयास करने की शक्ति केवल प्रेरणादायक शब्दों से नहीं आती। वह आती है— अनुशासन, नियमितता और साधना से। थोड़ी-सी दिनचर्या, थोड़ी-सी आत्मनिगरानी, और थोड़ी-सी ईश्वर-स्मृति— ये मिलकर भीतर ऐसी स्थिरता पैदा करते हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी व्यक्ति को डगमगाने नहीं देती।

गीता का योग केवल ध्यान का योग नहीं, जीवन जीने की कला है।

निष्कर्ष

बार-बार प्रयास करने की शक्ति न तो बाहर के लोगों से आती है, न परिस्थितियों से, न भाग्य से। वह आती है—

आत्मविश्वास से

विवेक से

कर्तव्यबोध से

और ईश्वर में अडिग श्रद्धा से

“उद्धरेदात्मनाऽत्मानं” कोई साधारण उपदेश नहीं, बल्कि जीवन का सूत्र है। जो व्यक्ति स्वयं को उठाना सीख लेता है, वही बार-बार गिरकर भी हारता नहीं।

क्योंकि अंततः
🌼 हार परिस्थितियों से नहीं, स्वयं से विश्वास खोने से होती है।

भगवत गीता जीवन अमृत 

Comments

Popular posts from this blog

3- भगवत गीता जीवन अमृत

8. असफल व्यक्ति को समाज क्यों तुच्छ समझता है? (भगवत गीता जीवन अमृत)

विवाह भाव का विश्लेषण