भगवत गीता जीवन अमृत (7. सफलता स्थायी क्यों नहीं?)

7. सफलता स्थायी क्यों नहीं?

📖 अनित्यमसुखं लोकम् (भगवद्गीता 9.33)
🪔 संसार क्षणभंगुर है।
🌼 आज की तालियाँ कल की खामोशी बन जाती हैं।
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मनुष्य के जीवन में सफलता एक ऐसा शब्द है, जिसके पीछे पूरा जीवन भागता रहता है। कोई धन को सफलता मानता है, कोई पद-प्रतिष्ठा को, तो कोई प्रसिद्धि और सामाजिक मान-सम्मान को। परंतु जब हम गहराई से देखते हैं, तो एक कड़वा सत्य सामने आता है—सफलता स्थायी नहीं होती। जो आज शिखर पर है, वह कल ढलान पर भी हो सकता है। यही जीवन का शाश्वत नियम है।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—अनित्यमसुखं लोकम्—यह संसार न तो स्थायी है और न ही यहाँ का सुख स्थायी है। अर्थात् जिस संसार में हम सफलता की नींव रखते हैं, वही स्वयं अस्थिर है, तो उस पर खड़ी की गई सफलता स्थायी कैसे हो सकती है?

1. संसार का स्वभाव ही परिवर्तनशील है

संसार का मूल गुण है—परिवर्तन। दिन के बाद रात, ऋतु के बाद ऋतु, बचपन के बाद युवावस्था और फिर वृद्धावस्था। जब स्वयं जीवन निरंतर बदल रहा है, तो उसमें मिलने वाली उपलब्धियाँ कैसे स्थायी रह सकती हैं?
आज जो परिस्थितियाँ आपके अनुकूल हैं, वही परिस्थितियाँ कल प्रतिकूल भी हो सकती हैं। यही कारण है कि कई लोग अपार सफलता के बाद भी असुरक्षा और भय से ग्रस्त रहते हैं।

2. सफलता परिस्थितियों पर निर्भर होती है

सफलता केवल व्यक्ति की योग्यता पर नहीं, बल्कि समय, समाज, बाजार, लोगों की मानसिकता और भाग्य पर भी निर्भर करती है।
आज जो कौशल आपको शीर्ष पर ले गया, कल वही कौशल अप्रासंगिक हो सकता है। तकनीक, राजनीति, व्यापार—हर क्षेत्र में इसके असंख्य उदाहरण मिलते हैं।
इसलिए जो सफलता बाहरी परिस्थितियों पर आधारित है, वह अस्थायी होना स्वाभाविक है।

3. अहंकार और आसक्ति का जन्म

सफलता के साथ अक्सर अहंकार और आसक्ति जन्म ले लेती है। व्यक्ति स्वयं को अजेय मानने लगता है। वह यह भूल जाता है कि जो उसे ऊपर लाया, वही नीचे भी ला सकता है।
शास्त्र कहते हैं—अहंकार पतन का द्वार है।
जब सफलता को “मैं” से जोड़ लिया जाता है, तब उसका छिन जाना असहनीय हो जाता है, और यहीं से मानसिक दुःख शुरू होता है।

4. समाज की स्मृति अल्पकालिक है

आज जो लोग आपकी प्रशंसा कर रहे हैं, वही लोग कल किसी और की तालियाँ बजाएँगे। समाज भावनाओं से नहीं, परिणामों से जुड़ा रहता है।
इतिहास गवाह है—कल के नायक आज विस्मृत हो जाते हैं।
इसलिए तालियों पर टिके रहने वाली सफलता टिकाऊ नहीं होती।

5. सुख की आदत और असंतोष

मनुष्य की प्रकृति है—जो मिल गया, वह सामान्य लगने लगता है। सफलता मिलने के बाद भी संतोष नहीं आता, बल्कि और अधिक की चाह पैदा होती है।
आज की सफलता कल की अपेक्षा बन जाती है।
और जब अपेक्षाएँ पूरी नहीं होतीं, तो वही सफलता बोझ लगने लगती है। इसीलिए सफलता सुख देने के बावजूद स्थायी आनंद नहीं दे पाती।

6. वास्तविक सफलता का भ्रम

अधिकांश लोग बाहरी उपलब्धियों को ही सफलता मान लेते हैं—धन, पद, प्रसिद्धि। पर ये सब साधन हैं, साध्य नहीं।
जब साधन को ही साध्य मान लिया जाता है, तब उसके छिन जाने पर जीवन रिक्त लगने लगता है।
गीता बार-बार यही समझाती है कि बाह्य उपलब्धियाँ अस्थायी हैं, स्थायी है केवल आत्मिक संतुलन।

7. कर्म और फल का नियम

श्रीकृष्ण कहते हैं—कर्म करो, फल की आसक्ति मत रखो।
जो व्यक्ति केवल परिणाम के लिए जीता है, वह परिणाम बदलते ही टूट जाता है।
लेकिन जो कर्म को धर्म मानकर करता है, उसके लिए सफलता और असफलता दोनों समान हो जाती हैं।
यही समत्व ही स्थायित्व की कुंजी है।
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तो फिर स्थायी क्या है?

स्थायी है—

आपका चरित्र

आपकी सोच

आपका आत्मसंयम

आपका धर्म और मूल्य

और जीवन के प्रति आपका दृष्टिकोण

जो व्यक्ति सफलता में विनम्र और असफलता में धैर्यवान रहता है, वही वास्तव में सफल है।
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✨ मार्गदर्शन और सहायता के लिए संदेश

यदि आप जीवन में सफलता की अस्थिरता से परेशान हैं, बार-बार गिरने से मन टूट जाता है, या उपलब्धियों के बाद भी शांति नहीं मिलती—तो इसका समाधान केवल बाहरी उपायों में नहीं, बल्कि आंतरिक दृष्टि के परिवर्तन में है।

✔️ अपनी कुंडली के अनुसार कर्म-दिशा जानना
✔️ जीवन में सही समय और निर्णय का मार्गदर्शन
✔️ मानसिक संतुलन और आत्मबल बढ़ाने के उपाय
✔️ गीता और वैदिक ज्ञान के अनुसार जीवन-मार्ग

👉 सही मार्गदर्शन से आप सफलता के पीछे नहीं, सफलता को अपने पीछे चलने वाला बना सकते हैं।

स्मरण रखें—
सफलता आती-जाती है, पर जो भीतर स्थिर है, वही वास्तव में विजयी है।
🌼🪔

Arymoulik 

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