4- भगवत गीता जीवन अमृत


 दूसरों से आगे निकलने की बेचैनी क्यों?

 “इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः” (भगवद्गीता 2.60)

 असंयमित इन्द्रियाँ और मन विवेक को हर लेते हैं।

पड़ोसी की तरक्की देखकर दुखी व्यक्ति अपना मार्ग भूल जाता है।
---

आज का मनुष्य भीतर से जितना अशांत है, उतना शायद पहले कभी नहीं था। कारण साधन नहीं, बल्कि तुलना है। कोई आगे निकल गया—घर, गाड़ी, पद, प्रसिद्धि—तो मन में बेचैनी उठती है। यह बेचैनी केवल ईर्ष्या नहीं, बल्कि अपने ही जीवन-पथ से भटक जाने का संकेत है। हम यह भूल जाते हैं कि जीवन दौड़ नहीं, यात्रा है; और हर यात्रा का प्रारंभ, गति और उद्देश्य अलग होता है।

भगवद्गीता का यह श्लोक (2.60) मनोविज्ञान की गहरी सच्चाई खोलता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि असंयमित इन्द्रियाँ मन को बलपूर्वक हर लेती हैं—अर्थात् मन अपने विवेक से नहीं, बाहरी आकर्षणों से संचालित होने लगता है। जब मन इन्द्रियों के वश में होता है, तब तुलना जन्म लेती है; और तुलना से ही बेचैनी।

तुलना का जाल: मन कैसे फँसता है

मन स्वभाव से चंचल है। जब उसे लक्ष्य और साधना नहीं मिलती, तब वह दूसरों की उपलब्धियों में उलझ जाता है। सोशल मीडिया ने इस प्रवृत्ति को और तीव्र कर दिया है—किसी की सफलता की चमक दिखती है, पर उसके संघर्ष की आग नहीं। परिणाम यह कि मन अपनी प्रगति को कमतर आँकने लगता है। हम यह नहीं पूछते कि मैं कल से आज कितना बेहतर हुआ? हम पूछते हैं—वह मुझसे आगे कैसे निकल गया?

यह प्रश्न आत्मविकास का नहीं, अहंकार का है। अहंकार को अपनी पहचान दूसरों से ऊपर दिखने में मिलती है। जब कोई आगे निकलता है, तो अहंकार घायल होता है—और वहीं से बेचैनी शुरू होती है।

ईर्ष्या नहीं, असुरक्षा

अक्सर हम इसे ईर्ष्या कहते हैं, पर इसकी जड़ असुरक्षा है। मन डरता है—कहीं मैं पीछे न रह जाऊँ, कहीं मेरी कीमत कम न हो जाए। यह डर तब बढ़ता है जब हमारा आत्ममूल्य बाहरी मान्यताओं पर टिका होता है—पैसा, पद, प्रशंसा। गीता हमें भीतर की ओर लौटने को कहती है—जहाँ आत्ममूल्य स्थिर होता है, दूसरों की तुलना से अछूता।

पड़ोसी की तरक्की और अपना मार्ग

जब पड़ोसी आगे बढ़ता है और हम दुखी होते हैं, तब हम दो भूल करते हैं। पहली—हम उसके मार्ग को अपना मान लेते हैं। दूसरी—हम अपने मार्ग को भूल जाते हैं। हर व्यक्ति की प्रकृति, कर्म, संस्कार और समय अलग है। जो आज आगे है, वह किसी और क्षेत्र में आगे हो सकता है; और जो आज पीछे दिख रहा है, वह अपनी साधना में गहरा हो सकता है। गीता का संदेश है—स्वधर्म पर टिके रहो। परधर्म की चमक अक्सर भीतर से खोखली होती है।

इन्द्रिय-संयम का अर्थ

इन्द्रिय-संयम का अर्थ दुनिया से भागना नहीं, बल्कि दुनिया के बीच रहते हुए मन की लगाम अपने हाथ में रखना है। आँखें तुलना दिखाती हैं, कान तुलना सुनाते हैं—पर निर्णय मन करता है। यदि मन विवेकयुक्त हो, तो वह कहता है: “यह प्रेरणा है, प्रतिस्पर्धा नहीं।” प्रेरणा ऊर्जा देती है; प्रतिस्पर्धा बेचैनी।

प्रतिस्पर्धा बनाम उत्कृष्टता

प्रतिस्पर्धा बाहर की ओर देखती है—कौन आगे है। उत्कृष्टता भीतर की ओर—मैं आज अपने सर्वश्रेष्ठ के कितने करीब हूँ। जब लक्ष्य उत्कृष्टता होता है, तब दूसरों की प्रगति प्रेरक बनती है। जब लक्ष्य प्रतिस्पर्धा होता है, तब वही प्रगति विष बन जाती है।

समाधान: गीता का व्यावहारिक मार्ग

1. स्व-अवलोकन: दिन में कुछ समय यह देखें कि आपकी प्रगति किस दिशा में है।

2. कर्म पर ध्यान: फल तुलना से मिलता है, शांति कर्म से।

3. सीमित उपभोग: अनावश्यक दृश्य-श्रवण (अतिरिक्त सोशल मीडिया) मन को भटकाते हैं।

4. कृतज्ञता अभ्यास: जो है, उसके लिए आभार—यह असुरक्षा को कम करता है।

5. दीर्घ दृष्टि: जीवन तात्कालिक जीत नहीं, दीर्घ साधना है।

निष्कर्ष

दूसरों से आगे निकलने की बेचैनी मन की असंयमता का परिणाम है। जब मन इन्द्रियों के पीछे दौड़ता है, तब तुलना जन्म लेती है; और तुलना से शांति विदा हो जाती है। गीता हमें सिखाती है कि अपने कर्म, अपने स्वभाव और अपने समय पर विश्वास रखो। जो व्यक्ति अपने मार्ग पर स्थिर है, उसे पड़ोसी की तरक्की चुभती नहीं—वह प्रेरित करती है।

अंततः प्रश्न यह नहीं कि कौन आगे है, प्रश्न यह है कि क्या मैं अपने सत्य के साथ आगे बढ़ रहा हूँ?

यही गीता का शाश्वत संदेश है।

"भगवत गीता जीवन अमृत" 

Comments

Popular posts from this blog

3- भगवत गीता जीवन अमृत

8. असफल व्यक्ति को समाज क्यों तुच्छ समझता है? (भगवत गीता जीवन अमृत)

विवाह भाव का विश्लेषण