11. युवा भ्रमित क्यों रहता है?

11. युवा भ्रमित क्यों रहता है?

📖 चञ्चलं हि मनः (भगवद्गीता 6.34)
🪔 मन स्वभाव से चंचल है।
🌼 दिशा न मिलने पर ऊर्जा भटक जाती है।
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आज का युवा पहले से अधिक साधन-संपन्न है, फिर भी पहले से अधिक भ्रमित दिखाई देता है। प्रश्न यह नहीं है कि उसके पास क्या नहीं है, प्रश्न यह है कि उसके पास स्पष्ट दिशा क्यों नहीं है। बाहरी दृष्टि से देखें तो युवा के पास शिक्षा है, तकनीक है, स्वतंत्रता है, विकल्पों की भरमार है—फिर भी उसके भीतर असमंजस, बेचैनी और असंतोष क्यों है? इसका उत्तर गीता के एक गहन सूत्र में छिपा है—“चञ्चलं हि मनः”। मन का स्वभाव ही चंचल है, और जब इस चंचल मन को सही दिशा नहीं मिलती, तो उसकी ऊर्जा भटकाव बन जाती है।

युवा अवस्था ऊर्जा की अवस्था है। यह वह समय है जब शरीर में शक्ति होती है, मन में सपने होते हैं और जीवन को जीत लेने का उत्साह होता है। परंतु यही ऊर्जा यदि अनुशासन और विवेक से संचालित न हो, तो वह आत्मविनाश का कारण भी बन सकती है। जैसे तेज़ बहती नदी यदि तटबंध न पाए तो बाढ़ बन जाती है, वैसे ही युवा की शक्ति यदि उद्देश्य न पाए तो भ्रम में बदल जाती है।

आज का युवा सबसे पहले विकल्पों के बोझ से दबा हुआ है। पहले जीवन अपेक्षाकृत सरल था—सीमित रास्ते, स्पष्ट अपेक्षाएँ। आज हर क्षेत्र में सैकड़ों विकल्प हैं—करियर, रिश्ते, जीवनशैली, विचारधाराएँ। विकल्प स्वतंत्रता देते हैं, लेकिन विवेक न हो तो वही विकल्प भ्रम पैदा करते हैं। युवा यह तय ही नहीं कर पाता कि कौन-सा रास्ता चुने, और जब निर्णय नहीं हो पाता, तो वह निर्णय टालने लगता है। यही टालना धीरे-धीरे आत्मविश्वास को कमजोर करता है।

दूसरा बड़ा कारण है आदर्शों का अभाव। आज का युवा जिन लोगों को आदर्श मान रहा है, वे अधिकतर सोशल मीडिया से गढ़े गए चित्र हैं—जहाँ सफलता बिना संघर्ष के, धन बिना परिश्रम के और सुख बिना संयम के दिखाया जाता है। वास्तविक जीवन इन चमकदार तस्वीरों से मेल नहीं खाता, और जब युवा अपने जीवन की तुलना इन आभासी छवियों से करता है, तो स्वयं को हीन महसूस करने लगता है। यह हीनता उसे और अधिक भ्रमित करती है—क्या मैं गलत हूँ, या जीवन ही ऐसा है?

तीसरा कारण है आंतरिक संवाद का टूट जाना। युवा बाहर की आवाज़ें बहुत सुन रहा है—समाज क्या कहता है, दोस्त क्या कर रहे हैं, ट्रेंड क्या है—लेकिन भीतर की आवाज़ को सुनने का समय उसके पास नहीं है। मन की चंचलता तब बढ़ती है जब आत्मचिंतन नहीं होता। गीता बार-बार भीतर देखने की बात करती है, क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं से जुड़ा नहीं है, वह संसार से भी संतुलित रूप में नहीं जुड़ सकता।

परिवार और शिक्षा व्यवस्था भी इस भ्रम में अनजाने में योगदान देती हैं। शिक्षा आज जानकारी देती है, पर दृष्टि नहीं देती। युवा को यह बताया जाता है कि कैसे कमाना है, लेकिन यह नहीं बताया जाता कि क्यों कमाना है। उसे प्रतिस्पर्धा सिखाई जाती है, पर सहयोग नहीं। परिणामस्वरूप युवा बाहरी सफलता के पीछे दौड़ता है, पर भीतर से खाली होता जाता है। जब भीतर रिक्तता होती है, तब मन और अधिक चंचल हो जाता है।

युवा भ्रमित इसलिए भी है क्योंकि वह असफलता से डरता है। समाज ने असफलता को अपराध बना दिया है। जबकि गीता असफलता को सीख का चरण मानती है। जब युवा को यह स्वतंत्रता नहीं मिलती कि वह गिरे, सीखे और फिर उठे, तो वह जोखिम लेने से डरता है। यह डर उसे निर्णयहीन बना देता है, और निर्णयहीनता भ्रम का स्थायी रूप है।

“चञ्चलं हि मनः” केवल समस्या का कथन नहीं है, समाधान की ओर संकेत भी है। यदि मन चंचल है, तो उसे बाँधना नहीं, साधना है। मन को दिशा दी जा सकती है—कर्तव्य से, साधना से, सेवा से और आत्मज्ञान से। जब युवा अपने जीवन को केवल भोग के नहीं, बल्कि योग के दृष्टिकोण से देखने लगता है, तब उसकी ऊर्जा केंद्रित होने लगती है।

युवा को यह समझना होगा कि जीवन का उद्देश्य केवल सफलता नहीं, बल्कि संतुलन है। केवल आगे बढ़ना ही नहीं, भीतर गहराना भी आवश्यक है। जो युवा अपने भीतर स्थिरता खोज लेता है, उसके लिए बाहरी परिस्थितियाँ उतनी भ्रमित करने वाली नहीं रहतीं। वह जानता है कि हर उत्तर बाहर नहीं, कुछ उत्तर मौन में मिलते हैं।

अंततः युवा का भ्रम कोई कमजोरी नहीं, बल्कि संभावना का संकेत है। भ्रम यह बताता है कि भीतर प्रश्न जीवित हैं। प्रश्न तब ही उठते हैं जब चेतना जाग्रत होती है। आवश्यकता है सही मार्गदर्शन की, सही साहित्य की, और ऐसे संवाद की जो युवा को स्वयं से जोड़ सके। जब मन को दिशा मिल जाती है, तब वही चंचलता सृजनशीलता बन जाती है, और वही ऊर्जा जीवन को अर्थ दे देती है।

इसलिए युवा को दोष देना समाधान नहीं है। समाधान है—उसे समझना, उसे मार्ग दिखाना और उसे यह विश्वास दिलाना कि मन चंचल है, पर साध्य भी है। और जब मन साध लिया जाता है, तब भ्रम नहीं, बोध जन्म लेता है।
क्रमशः 

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