10. वास्तविक सफलता क्या है?


10. वास्तविक सफलता क्या है?

📖 शान्तिरस्य कुतः सुखम् (भगवद्गीता 2.66)
🪔 शांति ही सफलता है।
🌼 धन और पद सब होते हुए भी अशांत व्यक्ति असफल ही है।
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वास्तविक सफलता—यह प्रश्न जितना सरल दिखता है, उतना ही गहरा है। संसार की दृष्टि में सफलता का अर्थ है धन, पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और भौतिक सुविधाएँ। लेकिन क्या यही अंतिम सत्य है? यदि धन और पद पा लेने के बाद भी मन बेचैन रहे, नींद न आए, रिश्ते सूख जाएँ और जीवन अर्थहीन लगे—तो क्या उसे सफलता कहा जा सकता है? गीता का वचन “शान्तिरस्य कुतः सुखम्” इसी प्रश्न का उत्तर देता है। जहाँ शांति नहीं, वहाँ सुख नहीं; और जहाँ सुख नहीं, वहाँ सफलता केवल भ्रम है।

मनुष्य की यात्रा बाहर की नहीं, भीतर की है। हम बाहर जीतते-जीतते भीतर हार जाते हैं। पदोन्नति मिलती है, पर मन गिर जाता है। बैंक बैलेंस बढ़ता है, पर विश्वास घटता है। तालियाँ बजती हैं, पर आत्मा मौन में रोती है। यह विडंबना इसलिए है क्योंकि हमने सफलता को साधन से नहीं, परिणाम से जोड़ दिया—और परिणाम भी केवल बाहरी।

शांति क्या है?
शांति का अर्थ निष्क्रियता नहीं, बल्कि भीतर का संतुलन है। यह वह अवस्था है जहाँ इच्छाएँ मनुष्य को नहीं, मनुष्य इच्छाओं को संचालित करता है। शांति वह मौन है जिसमें भय नहीं, तुलना नहीं, और अनावश्यक अपेक्षाएँ नहीं होतीं। यह कर्म से पलायन नहीं, बल्कि कर्म में स्थिरता है। गीता का कर्मयोग इसी शांति का मार्ग है—कर्म करो, पर आसक्ति छोड़कर।

धन और पद का सत्य
धन आवश्यक है—जीवन के साधन के रूप में। पद उपयोगी है—सेवा और व्यवस्था के लिए। पर जब धन लक्ष्य बन जाता है और पद पहचान—तब संकट शुरू होता है। क्योंकि धन कभी तृप्त नहीं करता और पद कभी स्थायी नहीं रहता। जो व्यक्ति अपने मूल्य को अपनी संपत्ति से मापता है, वह संपत्ति घटते ही टूट जाता है। जो व्यक्ति अपने अस्तित्व को पद से जोड़ता है, वह पद जाते ही शून्य हो जाता है। ऐसी अस्थिर नींव पर खड़ी इमारत को सफलता नहीं कहा जा सकता।

अशांति की जड़
अशांति की जड़ तुलना है। कोई हमसे आगे निकल जाए तो जलन; कोई पीछे रह जाए तो अहंकार। दोनों ही स्थितियाँ मन को विकृत करती हैं। दूसरी जड़ है भय—कल का भय, छिन जाने का भय, असफल होने का भय। तीसरी जड़ है पहचान का संकट—“मैं कौन हूँ?” जब उत्तर केवल ‘मैं क्या करता हूँ’ तक सीमित रह जाता है, तब आत्मा भूखी रह जाती है।

वास्तविक सफलता का मापदंड
वास्तविक सफलता का माप बाहरी नहीं, आंतरिक है।
– क्या मैं रात को शांति से सो पाता हूँ?
– क्या मैं अपने प्रियजनों के साथ उपस्थित रह पाता हूँ?
– क्या मेरा कर्म मेरे विवेक के साथ खड़ा है?
– क्या मैं विपरीत परिस्थितियों में भी संतुलन बनाए रख पाता हूँ?

यदि उत्तर ‘हाँ’ है, तो भले ही साधन सीमित हों—आप सफल हैं।

कर्म और शांति का संबंध
गीता कहती है—अशांत बुद्धि का न तो ज्ञान स्थिर होता है, न सुख। शांति कर्म से आती है, पर शर्त है—कर्म अहंकार से मुक्त हो। जब कर्म ‘मैं’ के विस्तार के लिए होता है, तो वह बंधन बनता है; जब कर्म ‘सेवा’ के भाव से होता है, तो वही मुक्ति बनता है। किसान बीज बोता है, पर हर पल फल नहीं गिनता। वह प्रकृति पर भरोसा रखता है। उसी प्रकार जीवन में कर्म करो, पर फल की घबराहट छोड़ दो—यही शांति का द्वार है।

सफलता और संबंध
जो व्यक्ति ऊँचाइयों पर पहुँचकर भी रिश्तों में विनम्र रहता है, वही वास्तव में सफल है। क्योंकि अंततः जीवन रिश्तों की ऊष्मा से अर्थ पाता है। धन अकेले हँसा नहीं सकता, पद अकेले सहारा नहीं बन सकता। शांति तब आती है जब संबंध प्रतिस्पर्धा नहीं, सह-अस्तित्व पर टिके हों।

असफलता का भय और शांति
वास्तविक सफलता असफलता से डरती नहीं। क्योंकि असफलता भी शिक्षक है। जो शांति में स्थित है, वह हार में भी सीख देखता है। जो अशांत है, वह जीत में भी भय ढूँढ लेता है। इसलिए शांति केवल सुख का साधन नहीं, साहस का स्रोत भी है।

आध्यात्मिक दृष्टि
आध्यात्मिक दृष्टि से सफलता आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ना है—अपने स्वभाव को जानना, अपने धर्म में स्थित होना। जब मनुष्य जान लेता है कि वह केवल उपलब्धियों का जोड़ नहीं, बल्कि चेतना का प्रवाह है—तब उसकी दौड़ थमती है। यह ठहराव आलस्य नहीं, परिपक्वता है।

निष्कर्ष
वास्तविक सफलता वह है जो आपको भीतर से पूरा करे। जो आपकी नींद न छीने, बल्कि गहरी करे। जो आपको दूसरों से काटे नहीं, बल्कि जोड़ दे। जो अहंकार न बढ़ाए, बल्कि करुणा जगाए। गीता का संदेश सरल है—जहाँ शांति है, वहीं सुख है; और जहाँ सुख है, वहीं सफलता है।

धन और पद जीवन के साधन हैं, लक्ष्य नहीं। लक्ष्य है—शांत मन, स्थिर बुद्धि और सुसंगत कर्म।
इसी में जीवन की सच्ची विजय है।

क्रमशः 

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