1-भगवत गीता (जीवन अमृत)
प्रश्न 1: बार-बार असफलता क्यों मिलती है?
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन — भगवद गीता 2.47
☀️ फल नहीं, कर्म पर ध्यान दो।
जीवन में असफलता का अनुभव लगभग हर व्यक्ति करता है। कोई परीक्षा में पिछड़ जाता है, कोई व्यापार में घाटा झेलता है, तो कोई संबंधों में टूटन महसूस करता है। बार-बार असफलता मिलने पर मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है—“मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?” इस प्रश्न का उत्तर बाहरी परिस्थितियों में कम, और हमारी दृष्टि, धैर्य तथा कर्म-भावना में अधिक छिपा होता है।
भगवद गीता का यह श्लोक—कर्मण्येवाधिकारस्ते—जीवन का एक गहरा सिद्धांत सिखाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं। फल अनेक कारकों पर निर्भर करता है—समय, परिस्थिति, अन्य लोगों का योगदान और ईश्वर की व्यवस्था। जब हम फल को ही केंद्र बना लेते हैं, तब हर देरी, हर बाधा हमें असफलता लगने लगती है।
अक्सर असफलता इसलिए बार-बार आती है क्योंकि हम परिणामों को लेकर अत्यधिक उतावले होते हैं। हम चाहते हैं कि मेहनत आज करें और फल कल ही मिल जाए। यह सोच प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध है। जैसे किसान बीज बोकर रोज़ खेत नहीं खोदता कि अंकुर निकला या नहीं—वह जानता है कि धैर्य, समय और निरंतर देखभाल से ही फसल पकेगी। यदि किसान हर दिन मिट्टी कुरेदे, तो बीज पनपेगा ही नहीं। इसी तरह, जो व्यक्ति हर प्रयास के तुरंत बाद परिणाम की खुदाई करता है, वह अपने ही कर्म की जड़ों को हिला देता है।
एक दूसरा कारण यह भी है कि हम असफलता को सीख की बजाय पहचान बना लेते हैं। “मैं असफल हूँ”—यह वाक्य हमें भीतर से कमजोर करता है। गीता हमें सिखाती है कि कर्म करते समय अहंकार और भय को त्यागो। जब हम स्वयं को परिणाम से जोड़ लेते हैं, तब असफलता हमें व्यक्तिगत हार लगती है। परंतु यदि हम कर्म को साधना मान लें, तो हर असफलता अनुभव बन जाती है—जो अगले प्रयास को अधिक परिपक्व करता है।
कई बार असफलता इसलिए भी आती है क्योंकि हमारा कर्म अधूरा होता है—या तो नीयत में कमी होती है, या निरंतरता में। हम शुरुआत तो जोश से करते हैं, पर बीच में थक जाते हैं। गीता का कर्म-योग यही सिखाता है कि कर्म को धर्म समझकर किया जाए—बिना ऊब, बिना शिकायत। जो व्यक्ति रोज़ थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ता है, वही अंततः स्थायी सफलता पाता है।
असफलता का एक गहरा कारण अपेक्षाओं का बोझ भी है। समाज, परिवार और स्वयं की ऊँची अपेक्षाएँ हमें भीतर से दबा देती हैं। जब परिणाम हमारी अपेक्षा के अनुरूप नहीं आता, तो हम उसे असफलता घोषित कर देते हैं। पर क्या हर अपेक्षा उचित होती है? क्या हर समय हमारी योजना प्रकृति की योजना से मेल खाती है? गीता कहती है—फल की आसक्ति त्यागो। इसका अर्थ यह नहीं कि लक्ष्य न रखो, बल्कि यह कि लक्ष्य के बंधन में जकड़ो मत।
यह भी समझना आवश्यक है कि कभी-कभी असफलता हमें रोकने नहीं, दिशा बदलने आती है। बहुत से लोग जीवन में जिस मोड़ पर असफल हुए, वही मोड़ आगे चलकर उनकी वास्तविक पहचान बना। यदि उस क्षण वे हार मान लेते, तो अपने वास्तविक सामर्थ्य से वंचित रह जाते। असफलता एक संकेत भी हो सकती है—कि तरीका बदलिए, दृष्टि बदलिए, या समय दीजिए।
मन की स्थिति भी असफलता को आमंत्रित या दूर कर सकती है। भय, संदेह और अधीरता—ये तीन ऐसे भाव हैं जो कर्म की शक्ति को कम कर देते हैं। जब हम भयभीत होकर कर्म करते हैं, तो आधा मन वहीं अटका रहता है कि “अगर न हुआ तो?” गीता का संदेश है—निडर होकर कर्म करो। कर्म में पूर्ण उपस्थित रहो। जब मन पूरी तरह कर्म में लीन होता है, तो परिणाम अपने-आप परिष्कृत होने लगते हैं।
असफलता के पीछे भाग्य को दोष देना आसान होता है, पर गीता कर्म-प्रधान दृष्टि देती है। भाग्य भी कर्मों का ही संचय है—पूर्व और वर्तमान का। वर्तमान में किया गया सजग कर्म भविष्य के भाग्य को गढ़ता है। इसलिए बार-बार असफलता मिलने पर यह पूछना अधिक उपयोगी है—“मेरे कर्म में क्या सुधार चाहिए?” न कि “मेरे साथ ही ऐसा क्यों?”
अंततः, असफलता स्थायी नहीं होती—स्थायी होती है सीख। जो व्यक्ति सीखता रहता है, वह असफलताओं की श्रृंखला को भी सफलता की सीढ़ी बना लेता है। जैसे नदी पत्थरों से टकराकर ही अपना मार्ग बनाती है, वैसे ही मनुष्य बाधाओं से टकराकर ही अपना स्वरूप गढ़ता है।
इसलिए, जब असफलता बार-बार आए, तो उसे शत्रु न मानें। उसे गुरु मानें। कर्म करते रहें—पूरी ईमानदारी, धैर्य और समर्पण के साथ। फल समय पर, उचित रूप में अवश्य मिलेगा। श्रीकृष्ण का यही आश्वासन है—कर्म करो, शेष मुझ पर छोड़ दो। यही जीवन की सच्ची सफलता का मार्ग है।
क्रमशः
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